Preface |
पाँचवें अध्याय द्वारा जो अति महत्त्वपूर्ण है, में कर्म संन्यास योग प्रकरण में सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय प्रस्तुत करते हैं, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा का ज्ञान कराते हैं। फिर वे ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन भी करते हैं। ध्यान योग की पूर्व भूमिका बनाकर वे अपने प्रिय शिष्य को एक प्रकार से छठे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों द्वारा आत्म संयम की महत्ता समझा देते हैं। यही सब कुछ परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में युगगीता- ३ में प्रस्तुत किया गया है। इससे हर साधक को कर्मयोग के संदर्भ में ज्ञान की एवं ज्ञान के चक्षु खुलने के बाद ध्यान की भूमिका में प्रतिष्ठित होने का मार्गदर्शन मिलेगा। जीवन में कैसे पूर्णयोगी बनें- युक्तपुरुष किस तरह बनें, यह मार्गदर्शन छठे अध्याय के प्रारंभिक ९ श्लोकों में हुआ है। इस तरह पंचम अध्याय के २९ एवं छठे अध्याय के ९ श्लोकों की युगानुकूल व्याख्या के साथ युगगीता का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण समाप्त होता है।
अर्जुन ने प्रारंभ में ही एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि कर्मसंन्यास व कर्मयोग में क्या अंतर है। उसे संशय है कि कहीं ये दोनों एक ही तो नहीं। दोनों में से यदि किसी एक को जीवन में उतारना है, तो उसके जैसे कार्यकर्त्ता- एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वह एक सुनिश्चित जवाब जानना चाहता है। उसके मन में संन्यास की एक पूर्व निर्धारित पृष्ठभूमि बनी हुई है, जिसमें सभी कर्म छोड़कर गोत्र आदि- अग्रि को छोड़कर संन्यास लिया जाता है। भगवान् की दृष्टि में दोनों एक ही हैं। ज्ञानयोगियों को फल एक में मिलता है तो कर्मयोगियों को दूसरे में, पर दोनों का महत्त्व एक जैसा ही है। |
Publication |
Shri Ved Mata Gayatri Trust |
Publisher |
Shri Vedmata Gayatri Trust |
Size |
normal |
TOC |
1.युग गीता भाग-१
2.युग गीता भाग-२
3.युग गीता भाग-३
4.युग गीता भाग-४ |
TOC |
1. प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
2. द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना !
3. प्रस्तुत तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
4. कर्मसंन्यास एवं कर्मयोग में कौन सा श्रेष्ठ है?
5. सांख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, अलग-अलग नहीं
6. कर्मयोग के अभ्यास बिना संन्यास सधेगा नहीं
7. कर्त्ताभाव से मुक्त द्रष्टा स्तर का दिव्यकर्मी
8. कर्मयोग की परमसिद्धि-अंतःशुद्धि
9. न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते
10. निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
11. आदर्शनिष्ठ महामानव कैसे बनें
12. ब्रह्म में प्रतिष्ठित संवेदनशील दिव्यकर्मी
13. ज्ञानीजन क्षणिक सुखों में रमण नहीं करते
14. योगेश्वर का प्रकाश-स्तंभ बनने हेतु भावभरा आमंत्रण
15. परम शांतिरूपी मुक्ति का एकमात्र मार्ग
16. ‘महावाक्य’ से समापन होता है, कर्म संन्यास योग की व्याख्या का
17. संकल्पों से मुक्ति मिले, तो योग सधे
18. योगारूढ़ होकर ही मन को शांत किया जा सकता है
19. उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्
20. जीता हुआ मन ही हमारा सच्चा मित्र
21. कैसे बनें पूरी तरह युक्तपुरुष |
Author |
Dr.Pranav Pandya |
Descriptoin |
इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जाने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है- यही उद्देश्य रहा है । मन्वन्तर- कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं, पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म- तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी, अमृतवाणी, सभी हर शब्द- वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित- परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है। |
Dimensions |
224mmX145mmX11 |
Edition |
2011 |
Language |
Hindi |
PageLength |
172 |