Author |
Pandit Shriram Sharma Aacharya |
Descriptoin |
इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जाने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है- यही उद्देश्य रहा है । मन्वन्तर- कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं, पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म- तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी, अमृतवाणी, सभी हर शब्द- वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित- परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है। |
Dimensions |
218mmX143mmX18mm |
Edition |
2010 |
Language |
Hindi |
PageLength |
160 |
Preface |
इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जाने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है- यही उद्देश्य रहा है । मन्वन्तर- कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं, पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म- तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी, अमृतवाणी, सभी हर शब्द- वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित- परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है। |
Publication |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Size |
normal |
TOC |
१ - गीता-माहात्म्य
२ - गीता का प्रथम अध्याय- अर्जुन विषाद योग
३ - सद्गुरु के रूप में भगवान् का वरण
४- गुरु हमें आत्मोन्मुख करने के लिए दिखाता है आईना
५ - योगस्थ हो युगधर्म का निर्वाह करें
६ - जो परमात्म सत्ता में अधिष्ठित हो, वही है स्थितप्रज्ञ
७- कैसे हो आसक्ति से निवृत्ति ८ - स्थितप्रज्ञ-प्रज्ञावान् की यही पहचान
९ - कर्म किए बिना कोई रह कैसे सकता है
१० -व्यावहारिक अध्यात्म का मर्म सिखाता है गीता का कर्मयोग
११ -कर्म हमारे यज्ञ के निमित्त ही हों
१२ -शिक्षण यज्ञ-कर्म के रूप में जीवन जीने के मर्म का
१३-लोकशिक्षण के लिए समर्पित हों जाग्रतात्माओं के कर्म
१४-कर्म किए बिना कोई रह ही कैसे सकता है
१५-आत्माभिमान छोड़कर ही बना जा सकता है कर्मयोगी
१६ -जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् |
TOC |
1.युग गीता भाग-१
2.युग गीता भाग-२
3.युग गीता भाग-३
4.युग गीता भाग-४ |