Author |
Pt. Shriram sharma acharya |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |
Language |
Hindi |
PageLength |
56 |
Preface |
आत्मा में सन्निहित ब्रह्मवर्चस का जागरण करने के लिए गायत्री उपासना आवश्यक है । यों सभी के भीतर सत्-तत्व बीज रूप में विद्यमान है पर उसका जागरण जिन तपश्चर्याओं द्वारा सम्भव होता है उनमें गायत्री उपासना ही प्रधान है । हर आस्तिक को अपने में ब्रह्म तेज उत्पन्न करना चाहिए । जिसमें जितना ब्रह्म-तत्व अवतरित होगा वह उतने ही अंशों में ब्राह्मणत्व का अधिकारी होता जायेगा । जिसने आदर्शमय जीवन का व्रत लिया है व्रतबंधु यज्ञोपवीत धारण किया हैं वे सभी व्रतधारी अपनी आत्मा में प्रकाश उतपन्न करने के लिए गायत्री उपासना निरन्तर करते रहे यही उचित है । जो इस कर्त्तव्य से च्युत होकर इधर-उधर भटकते है जड़ को सींचना छोड्कर पत्ते धोते फिरते है, उन्हें अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में बिलम्ब ही नहीं, असफलता का भी सामना करना पड़ता है ।
साधना शास्त्रों में निष्ठावान भारतीय धर्मानुयायियों को, द्विजों को एक मात्र गायत्री उपासना का ही निर्देश किया गया है । उसमें वे अपना ब्रह्मवर्चस आशाजनक मात्रा में बढ़ा सकते हैं और उस आधार पर विपन्नता एवं आपत्तियों से बचाते हुए सुख शान्ति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से बढ़ते रह सकते हैं । द्विजत्व का व्रत-बंध स्वीकार करते समय हर व्यक्ति को गायत्री मन्त्र की दीक्षा लेनी पड़ती है इसलिए उसे ही गुरुमन्त्र कहा जाता रहा है । पीछे से अन्धकार युग में चले सम्प्रदायवाद ने अनेक देवी-देवता मंत्र और उनेक उपासना विधान गढ़ डाले और लोगों को निर्दिष्ट मार्ग से भटकाकर भ्रम-जंजालों में उलझा दिया । फलत: अनादि काल से प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी की निर्दिष्ट उपासना पद्धति हाथ से छूट गई और आधार रहित पतंग की तरह हम इधर उधर टकराते हुए अधःपतित स्थिति में जा पहुँचे ।
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Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Size |
normal |
TOC |
1. गायत्री उपासना से ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति
2. तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन शक्तिपीठ के रूप में
3. त्रिपदा की जीवंत प्रतिभा ब्रह्मवर्चस
4. प्रतिभाओं की ढ़लाई का समर्थ सयंत्र ब्रह्मवर्चस
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