जीवन सम्पदा का दुरुपयोग
अन्य जीव- जन्तुओं का लक्ष्य और पुरुषार्थ मात्र शरीर रक्षा एवं सुविधा तक सीमित रहता है ।। उन्हें न तो चेतना के स्वरूप का ज्ञान होता है और न उसके प्रति किन्हीं कर्त्तव्यों के पालन का दायित्व अनुभव होता है पर मनुष्य के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है ।। उसकी संरचना स्रष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति के रुप में हुई है ।। शारीरिक और मानसिक ढाँचा इस स्तर का विनिर्मित हुआ है कि वह स्वल्प श्रम और समय में शरीर मात्र को उचित आवश्यकताओं को सरलतापूर्वक पूरी कर सके और बची हुई क्षमता को उन प्रयोजनों में लगा सके जिसके लिए वह जीवन सम्पदा उपलब्ध हुई है ।। विश्व वाटिका को अधिक सुरम्य सुव्यवस्थित समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाना स्रष्टा ने अपने श्रेष्ठ युवराज मनुष्य को सौंपा है और कहा है कि वह जीवन सम्पदा का सदुपयोग इसी प्रयोजन के लिए प्रधान रुप से करे ।। शरीर निर्बाह यदि बुद्धिमत्तापूर्वक किया जाय तो उसके लिए स्वस्थ शक्ति का नियोजन ही पर्याप्त होता रहेगा ।। शेष बचत से वे सभी प्रयोजन पूरे होते रहेंगे जिनसे व्यक्तिगत अपूर्णताओं को पूरा करते हुए पूर्णता का लक्ष्य पूरा किया जा सके और साथ ही लोकमंगल के लिए बड़े- चढ़े अनुदान प्रदत कर सकना भी संभव हो सके ।। इस प्रकार स्वार्थ और परमार्थ के दोनों लक्ष्य साथ- साथ सरलतापूर्कक होते रह सकेंगे ।। यही है वह राह जिसे मानवी गरिमा को अनुभव करने वाले व्यक्ति को अपनाना उचित है ।।
इसे अज्ञान अनौचित्य या भटकाव ही कहना चाहिए कि विचारशील होते हुए भी मनुष्य अविवेकी प्राणियों को तरह जीता है और अपनी सारी क्षमतायें ललक एवं लिप्साओं में हो खपा देता है ।।
Publication
Yug nirman yojana press
Publisher
Yug Nirman Yojana Vistara Trust
Size
normal
TOC
1. जीवन संपदा का दुरुपयोग
2. शिक्षा ही नहीं विद्या भी
3. सद्ज्ञान संपदा का अभाव
4. अतीत की गरिमा में धर्मतंत्र का योगदान
5. प्रतिभा परिष्कार की महती आवश्यकता
6. पृथ्वी के देवता भूसुर पुरोहित्
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