Preface
समझदारी का सदुपयोग यह है कि उसके सहारे सीधा रास्ता तलाश किया जाए और ऊँचा उठने, आगे बढ़ने में उपलब्ध शक्तियों को नियोजित किया जाए । इसके विपरीत यदि समझदारी कुचक्र रचने लगे, विनाश पर उतरे, उल्टे रास्ते चले तो उससे हानि ही हानि है । इससे तो वे नासमझ अच्छे जो कछुए की तरह धीमी चाल चलते, लक्ष्य का ध्यान रखते और उछलने वाले खरगोश से आगे निकलकर बाजी जीतते हैं ।
मनुष्य की तुलना में इस दृष्टि से वे पशु अधिक समझदार हैं जिन्होंने प्रकृति मर्यादाओं को अपनाए रखा है और मनुष्य के नागपाश तथा प्रकृति प्रकोप का सामना करते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए रखा है । जो इन साधन रहित परिस्थितियों में भी मात्र अपनी काय प्रकृति प्रेरणा और कठोर श्रम करने पर संभव हो सकने वाली निर्वाह व्यवस्था भर से काम चलाते और सुख-चैन की जिंदगी जीते हैं । एक मनुष्य है जो विपुल वैभव का अधिष्ठाता होते हुए भी आए दिन ऐसे त्रास सहता है जैसे पुराणों में यमदूतों द्वारा नरक क्षेत्र में पहुँचने पर दिए जाने का उल्लेख है । होना यह चाहिए था कि सृष्टा के इस सुरम्य उद्यान में मनुष्य शरीरधारी देवोपम स्तर का निर्वाह करता और अपने प्रभाव क्षेत्र को स्वर्ग में अवस्थित नंदन वन जैसा सुरम्य बनाकर रखता । पर दुर्भाग्य को देखा जाए, ठीक उल्टी स्थिति में उसे दिन गुजारने पड़ रहे हैं ।
Table of content
1. कुपोषण का मूल कारण नासमझी
2. आहार पौष्टिक ही नहीं सर्व-सुलभ भी हो
3. सात्विकता को भुला न दिया जाए
4. नैसर्गिक जीवन क्रम आरोग्य प्रदाता
5. विपत्ति की जड़ जिह्वा की ललक-लिप्सा
6. आहार-विहार की मर्यादा अपनाना हर दृष्टि से श्रेयस्कर
7. चिंतन की स्वच्छता भी उतनी ही अनिवार्य
Author |
Pt. Shriram Sharma Acharya |
Edition |
2011 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistar Trust |
Page Length |
64 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |