Preface
अनेक लोगों की धारणा रहती है कि दर्शन कर लेने, फूल माला चढ़ा देने, दीपदान कर देने अथवा दण्डवत् प्रदक्षिणा का क्रम पूरा कर देने मात्र से ही देवता प्रसन्न होकर अभीष्ट मनोरथ पूरा कर देंगे।
देवताओं की प्रसन्नता खुशामद पसन्द लोभी व्यक्तियों की तरह सस्ती नहीं होती। उनकी अनुकंपा प्राप्त करने के लिए किसी को भी कदम- कदम पर अपने दोष- दुर्गुणों को दूर करना होगा, जीवन को पवित्र तथा पुण्यपूर्ण बनाना होगा। जिसके लिए आत्मसंयम, त्याग तथा तपश्चर्यापूर्वक जीवन साधना करनी होगी।
दर्शन तब तक अधूरा है, जब तक उसका दर्शन भी हृदयंगम करने के लिए हम तत्पर न हों। तीर्थों मे, मंदिरों में, अगणित लोग देव दर्शनों के लिए जाते हैं। प्रतिमाओं को देखते भर हैं। हाथ जोड़ दिया या एक- दो पैसा चढ़ावे का फ़ेंक दिया अथवा पुष्प, प्रसाद आदि कोई छोटा- मोटा उपहार उपस्थित कर दिया, इतने मात्र से उन्हें यह आशा रहती है कि उनके आने पर देवता प्रसन्न होंगे, अहसान मानेंगे और बदले में मनोकामनाएँ पूर्ण कर देंगे। आमतौर से यही मान्यता अधिकांश दर्शनार्थियों की होती है, पर देखना यह है कि क्या यह मान्यता ठीक है, क्या उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं, या ऐसे ही एक भ्रम परंपरा से भ्रमित लोग इधर से उधर मारे- मारे फिरते हैं ?
भगवान बुद्ध ने जीवन में प्रथम बार ही एक रोगी, एक वृद्ध एवं एक मृतक का दर्शन किया और वे जीवन- दर्शन की गहराई तक उतर गए। फलस्वरूप उन्हें अपनी विचार- पद्धति और कार्य प्रणाली में भारी हेर- फेर करना पड़ा। राजमहल को छोड़कर वे निविड़ वन प्रदेश में चले गए। विलासिता का परित्याग कर कठोर तप करने लगे। दर्शन की सार्थकता इसी में है। ऐसा ही दर्शन पुण्यफलदायक होता है। चाहें तीर्थ के दर्शन किए जाएं, चाहें देव प्रतिमा के, चाहें किसी संत सत्पुरुष के।
Author |
Pt. shriram sharma |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
32 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |