Preface
हिन्दू धर्म की मान्याताओं के अनुसार मरने के बाद भी दिवंगत आत्मा का घर के प्रति मोह-ममता का भाव बना रहता है। यह ममता उसकी भावी प्रगति के लिए बाधक है जिस प्रकार पुराने वस्त्र को उतार कर या किसी वस्तु, पदार्थ को बेचकर उसकी ममता से छुटकारा मिल जाता है, उसी प्रकार जीव के लिए यही उचित है कि पहले परिवार की ममता छोड़े और प्रत्येक प्राणी जिस प्रकार अपने भले-बुरे कर्मों का भोग भोगने और नये भविष्य का निर्माण करने में संलग्न है, उसी प्रक्रिया के अनुरूप अपना जीवनक्रम भी ढाले।
अनावश्क ममता कर्तव्य पथ में सदा बाधक रहती है, जीवनकाल काल में जो लोग अधिक मोह-ममता से ग्रसित रहते हैं, वे अपनी बहुमूल्य शक्तियों को जिनका सदुपयोग करने पर अपनी आत्मा का, परिवार का तथा समाज का भारी हित हो सकता था, ऐसे ही खेल-खिलवाड़ में निरर्थक खो डालते हैं। शरीर के बाद मनुष्य कुटुम्बियों को ही अपना समझता है। बाकी सारी दुनियाँ उसके लिए बिरानी रहती है। बिरानों के लिए कुछ सोचने और करने की इच्छा नहीं होती। सारा ध्यान अपनों के लिए ही लगा रहता है और जो कुछ कमाता, उगाता है, उस सबका लाभ इस छोटे से दायरे के लिए ही बाँधकर रखता है।
इस अज्ञान मूलक ममता से घर वाले आत्म-निर्भरता एवं स्वावलम्बन खोकर बिना परिश्रम किये प्राप्त की कमाई पर मौज करने के आदी हो जाते हैं। इच्छित मौज-शौक के साधन जुटाने पर गृह स्वामी पर कुद्ध होते हैं, उसका तिरस्कार करते है एवं शतुत्रा बरतते हैं। इसके मूल में गृह स्वामी की अवांछनीय मोह ममता ही है।
Table of content
1.मरणोत्तर संस्कार विवेचन
Author |
Pt Shriram sharma acharya |
Edition |
2014 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
24 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |