Preface
गीताजी का ज्ञान हर युग, हर काल में हर व्यक्ति के लिए मार्गदर्शन देता रहा है। गीतामृत का जो भी पान करता है, वह कालजयी बन जाता है। जीवन की किसी भी समस्या का समाधान गीता के श्लोकों में कूट- कूट कर भरा पड़ा है। आवश्यकता उसका मर्म समझने एवं जीवन में उतारने की है। धर्मग्रन्थों में हमारे आर्ष वाङ्मय में सर्वाधिक लोकप्रिय गीताजी हुई है। गीताप्रेस गोरखपुर ने इसके अगणित संस्करण निकाल डाले हैं। घर- घर में गीता पहुँची हैं, पर क्या इसका लाभ जन साधारण ले पाता है। सामान्य धारणा यही है कि यह बड़ी कठिन है। इसका ज्ञान तो किसी को संन्यासी बना सकता है इसलिये सामान्य व्यक्ति को इसे नहीं पढ़ना चाहिए। साक्षात पारस सामने होते हुए भी मना कर देना कि इसे स्पर्श करने से खतरा है, इससे बड़ी नादानी और क्या हो सकती है। गीता एक अवतारी सत्ता द्वारा सद्गुरु रूप में योग में स्थित होकर युद्ध क्षेत्र में कही गयी है। फिर यह बार बार कर्त्तव्यों की याद दिलाती है तो यह किसी को अकर्मण्य कैसे बना सकती है। यह सोचा जाना चाहिए और इस ज्ञान को आत्मसात किया जाना चाहिए। गीता और युगगीता में क्या अंतर है, यह प्रश्र किसी के भी मन में आ सकता है। गीता एक शाश्वत जीवन्त चेतना का प्रवाह है। जो हर युग में हर व्यक्ति के लिए समाधान देता है। श्रीकृष्ण रूपी आज की प्रज्ञावतार की सत्ता ‘‘परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य’’ को एक सद्गुरु- चिन्तक मनीषी के रूप में हम सभी ने देखा है। एक विराट् परिवार उनसे लाभान्वित हुआ एवं अगले दिनों होने जा रहा है।ज्ञान गीता का है- निवेदक ने मात्र यही प्रयास किया है कि गीता के ज्ञान को परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन के संदर्भ में आज हम कैसे दैनंदिन जीवन में लागू करें, यह व्यावहारिक मार्गदर्शन इस खण्ड की विस्तृत व्याख्या द्वारा प्राप्त हो।
Table of content
1. प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
2. प्रस्तुत द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
3. मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो और किसलिए आए हो?
4. धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे
5. जन्म कर्म च मे दिव्यम्
6. वीतराग होने पर प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होना
7. ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
8. कर्म, अकर्म तथा विकर्म
9. कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का मर्म
10. गहना कर्मणोगति
11. कैसे बनें दिव्यकर्मी और कैसे हों बंधनमुक्त
12. कर्म में ब्रह्मदर्शन से ब्रह्म की ही प्राप्ति
13. हर श्वास में संपादित दिव्य कर्म ही हैं यज्ञ
14. यज्ञ बिना यह लोक नहीं तो परलोक कैसा?
15. यज्ञों में श्रेष्ठतम-ज्ञानयज्ञ
16. ज्ञान की नौका से भवसागर को पार करें
17. पूर्ण तृप्त ज्ञानी की परिणति
18. उठो भारत स्वयं को योग में प्रतिष्ठित करो
Author |
Dr. Pranav Pandya |
Edition |
2011 |
Publication |
Shri Ved Mata Gayatri Trust |
Publisher |
Shri Vedmata Gayatri Trust |
Page Length |
160 |
Dimensions |
222mmX144mmX10mm |