Preface
परमपूज्य गुरुदेव के समग्र वाङ्मय में जो सबसे महत्त्वपूर्ण शिक्षण है- वह है ज्ञान को, जीवन जीने की कला को जीवन में उतारकर स्वयं को नरपशु से देव- मानव बनाना ।। हर व्यक्ति के अंदर परिपूर्ण हो सकने की अनंत संभावनाएँ विद्यमान हैं ।। जो भी कुछ भ्रांतियों का कुहासा दिखाई पड़ता है- वह व्यक्ति की अनगढ़ता, उसके अस्त- व्यस्त क्रियाकलापों या ऐसी गतिविधियों में दृष्टिगोचर होता है जो उसके पतन- पराभव के लिए जिम्मेदार हैं ।। ज्ञान यदि जीवन में समाविष्ट हो जाय तो व्यक्ति को वे चक्षु मिल जाते हैं जो उसे पूर्णता के पथ पर चलना सिखाते हैं ।।
ज्ञान के दो पक्ष हैं- शिक्षा एवं विद्या ।। शिक्षा जहाँ साक्षर बनाने से लेकर धन पैदा करने का कौशल सिखाती है वहीं विद्या चिंतन- चरित्र में शालीनता का समावेश कर व्यक्ति को प्रामाणिक बनाती है ।। जीवन का उत्थान- पतन इसी विद्या वाले पक्ष के अवलंबन पर निर्भर है ।। कोई ऊँचा उठा या नीचे गिरा तो क्यों ?? यह जानना हो तो उसकी शिक्षा नहीं, विद्या की ग्रहणशीलता देखकर आँका जाना चाहिए ।।
सद्ज्ञान वह है, जो भाव- संवेदनाओं द्वारा व्यक्तित्व को निखारता है, उसे प्रामाणिक व प्रखर बनाता है ।। मनुष्य को आदर्शवादी व ऊँचे स्तर तक पहुँचाने का कार्य यही सद्ज्ञान करता है ।। जन- समस्याएँ सद्ज्ञान ही सुलझा सकता है ।। परिष्कृत दृष्टि कोण अपनाकर सौभाग्य भरा जीवन कैसे जिया जा सकता है, सद्ज्ञान इसी का शिक्षण देता है ।। सद्ज्ञान पारस है ।। इसे हृदय में बिठाने पर लोहे जैसा सामान्य या अनगढ़ व्यक्ति भी सोने जैसा सुंदर- मूल्यवान बन जाता है ।। पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि ज्ञान की वास्तविकता और गंभीरता बताने वाली कसौटी यही है कि वह व्यक्ति को सद्गुणों से संपन्न और विवेकवान बनाए उसे लोकमंगल की ओर प्रवृत्त करे ।।
Table of content
1. प्रगति का मूल आधार-ज्ञान।
2. पुस्तकालयो का महत्व देवाल्य जितना।
3. युग सृजन के सन्दर्भ मे प्रगतिशील लेखन कला।
4. भाषण और संभाषण की दिव्य क्षमता।
Author |
pt. Shriram sharma acharya |
Dimensions |
20 cm x 27 cm |