Preface
मनुष्य आज जिस जीवन पद्धति का आदी हो चुका है, वह स्वभाविक रूप से उसे रोगी बनाती है। निरोज जीवन प्रकृति का एक अनुदान है, सृजेता की रीति-नीति का एक अंग है जबकि रोग विकृति का नाम है। उस भोगवादी संस्कृति के विकास ने आज घट-घट में स्थान बना लिया है। हम जो खाते हैं, पीते हैं श्वास लेते हैं, सभी में कहीं न कहीं जहर घुला हुआ है। इसके अतिरिक्त बढ़ते लालच एवं दौड़ती आधुनिकता के तनाव ने मनुष्य को खोखला बना दिया है। जो भी कुछ शरीरगत मनोगत कष्ट आज मानव भुगतता दिखाई दे रहा है। उसके मूल में वह अशक्ति ही है-मनोबल का ह्रास ही है, जो उसकी रचनाधर्मी जीवनचर्या को खंडित करता रहा है। यह अशक्ति सर्वाधिक आज की परिस्थितियों में जन्मे तनाव से (स्ट्रेस से ) हो रही है। प्रायः सभी प्रकार के रोग उससे होते सिद्ध किये जा सकते हैं।
चिकित्सा पद्धति की त्वरित परिणाम दिखाने की गुणवत्ता के कारण एलोपैथी लोकप्रिय होती चली गयी पर किसी ने भी उसके दुष्परिणामों पर ध्यान नहीं दिया। आज सारी मानव जाति पाश्चात्य औषधि प्रणाली की विषाक्तता से पीड़ित है। ऐसी परिस्थिति में एक मात्र चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद ही ऐसी नजर आती है जो प्रकृति के सर्वाधिक समीप है एवं समग्र स्वास्थ्य के संरक्षण की बात कहती है परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने इस आयुर्वेद का पुनर्जीवन कर इसे सार्वजनीन, सर्वसुलभ बना दिया आज सभी प्रकार की काष्ठ औषधियां परिष्कृत रूप में उपलब्ध हैं। इनके कोई दुष्परिणाम भी नहीं होते। आयुर्वेद की यही विशिष्टता उसे सर्वोपरि बनाती है एवं सबके लिए सुलभ भी।
Author |
Brahmvarchas |
Edition |
2014 |
Publication |
yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
504 |
Dimensions |
19 cm x 25 cm |