Preface
गायत्री का तेईसवाँ अक्षर द हमको आत्मज्ञान और आत्म कल्याण का मार्ग दिखलाता है-
दर्शन आत्मन: कृत्या जानीयादात्म गौरवम् ।
ज्ञात्या तु तत्तदात्मानं पूर्णोन्नति पर्थ नयेत् । ।
आत्मा को देखे, आत्मा को जाने, उसके गौरव को पहचाने और आत्मोन्नति के मार्ग पर चले ।
मनुष्य महान पिता का सबसे प्रिय पुत्र है । सृष्टि का मुकुटमणि होने के कारण उसका गौरव और उत्तरदायित्व भी महान है । यह महत्ता उसके दुर्बल शरीर के कारण नहीं, वरन आत्मिक विशेषताओं के कारण है ।
आत्मगौरव की रक्षा करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है । जिससे आत्म- गौरव घटता हो, आत्मग्लानि होती हो, आत्महनन करना पड़ता हो, ऐसे धन, सुख, भोग और पद को लेने की अपेक्षा भूखा, नंगा रहना ही अच्छा है । जिसके पास आत्मधन है उसी को सच्चा धनी समझना चाहिए । जिसका आत्मगौरव सुरक्षित है, वह इंद्र के समान बड़ा पदवीधारी है, भले ही चाँदी और ताँबे के टुकड़े उसके पास, कम मात्रा में ही क्यों न हों ?
Table of content
1. आत्मनिर्माण का मार्ग
2. आत्मोन्नति के लिए आवश्यक गुण
3. आध्यात्मिक मार्ग में सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है ?
4. आत्मकल्याण और सदुपदेश
5. आत्मकल्याण के लिए आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता
6. आत्मकल्याण और मानसिक शक्तियाँ
7. आत्मज्ञान ही सबसे बड़ी संपदा है
Author |
Pt. shriram sharma |
Edition |
2015 |
Publication |
yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
24 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |