Preface
जीव क्या है ? चेतना के विशाल सागर की एक छोटी- सी बूँद अथवा लहर ।। हर शरीर में थोड़ा आकाश भरा होता है, उसका विस्तार सीमित है, उसे नापा और जाना जा सकता है; पर वह अलग दीखते हुए भी ब्रह्मांड- व्यापी आकाश का ही एक घटक है ।। उसका अपना अलग से कोई अस्तित्व नहीं ।। जब तक वह काया- कलेवर में घिरा है, तभी तक सीमित है ।। काया के नष्ट होते ही वह विशाल आकाश में जा मिलता है ।। फेफड़ों में भरी सांस सीमित है ।। पानी का बबूला स्वतंत्र है, फिर भी इनके सीमा बंधन अवास्तविक हैं ।। फेफड़े में भरी वायु का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं ।। ब्रह्मांड- व्यापी वायु ही परिस्थितिवश फेफड़ों की छोटी परिधि में कैद है ।। बंधन न रहने पर वह व्यापक वायुतत्त्व से पृथक दृष्टिगोचर न होगी ।। पानी का बबूला हलचलें तो स्वतंत्र करता दीखता है, पर हवा और पानी का छोटा- सा संयोग जिस क्षण भी झीना पड़ता है; पानी, पानी और हवा, हवा में जा मिलती है ।। बबूले का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।। जीव अर्थात व्यापक ईश्वरीय सत्ता का परिस्थितिवश स्वतंत्र दिखाई पड़ने वाला एक छोटा और अस्थायी घटक ।। चेतना का असीम समुद्र सर्वत्र लहलहा रहा है ।। हम सब उसी में जन्मने, मरने और जीवित रहने वाले जल- जंतु हैं ।। यह उपमा अधूरी लगती हो तो सागर और उसकी लहरों का उदाहरण ठीक समझा जा सकता है ।। हर लहर पर एक स्वतंत्र सूर्य चमकता देखा जा सकता है, पर उतने सूर्य हैं नहीं ।। यह दृश्य की विचित्रता है ।। वस्तुत :: एक ही सूर्य के पृथक प्रतिविंब भर चमकते हैं ।।
Table of content
1. आत्मा और परमात्मा का संबंध
2. ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था
Author |
Pt. Shriram Sharma Aaachrya |
Publication |
Yug Nirman Yojana trust, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Press, Mathura |
Page Length |
40 |
Dimensions |
12 X 18 cm |