Preface
स्त्री- पुरुष का सहचरत्व एक स्वाभाविक, आवश्यक एवं उपयोगी कार्य है ।। यह प्रचलन सृष्टि के प्रारंभ काल से ही चला आया है और अंत तक चलता रहेगा ।। यह सहचरत्व आमतौर से प्राय: हर एक वयस्क स्त्री- पुरुष को स्वीकार करना पड़ता है ।। परंतु इस गृहस्थ धर्म में अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ पैदा हो गई हैं, जिनके कारण देखा जाता है कि स्त्री- पुरुष आपस में उतने संतुष्ट नहीं रह पाते, जिससे सहचरत्व का सच्चा सुख प्राप्त किया जा सके ।। पिछले दिनों तो यह विकृतियाँ इतनी अधिक हो गईं थी कि लोग उससे ऊबने लगे; उसमें दोष देखने लगे और उससे पृथक रहने की बात सोचने लगे ।। धर्ममंच तक यह प्रश्न पहुँचा औरे जहाँ- तहाँ ऐसी विचारधारा प्रकट की जाने लगी, जिससे गृहस्थ बनना एक प्रकार की निर्बलता, गिरावट समझी जाने लगी ।। गृहस्थ बनना नरक का मार्ग है और घरबार को छोड़ बाबाजी बन जाना स्वर्ग का रास्ता है; यह विचारधारा हमारे देश में पिछले दिनों अधिक पनपी ।। फलस्वरूप चौरासी लाख साधु हमें इधर- उधर फिरते नजर आते हैं ।।
हमें मालूम है कि उपरोक्त विचारधारा गलत है, हम जानते हैं कि गृहस्थ और संन्यास दोनों अवस्थाओं में समान रूप से आत्मोन्नति की जा सकती है ।। गृहस्थ धर्म का उचित रीति से पालन करने से भी मनुष्य योगफल को प्राप्त कर सकता है और स्वर्ग एवं मुक्ति का अधिकारी बन सकता है ।। इस तथ्य के ऊपर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है ।। हमें आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को पारिवारिक जीवन का सुख तथा आत्मिक आनंद उपलब्ध करने में सहायक होगी ।।
Table of content
1. गृहस्थ योग
2. दृश्टिकोण का परिवर्तन
3. गृहस्थ में वैराग्य
4. गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है
5. गृहस्थ योग से परम पद
6. गृहस्थ योग के कुछ मंत्र
7. परिवार की चतुर्विधि पूजा
8. पारिवारिक स्वराज्य
9. सद्व्यवहार की आवश्यकता
Author |
Pt. Shriram Sharma Acharya |
Edition |
2014 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistar Trust |
Page Length |
48 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |